Wednesday, February 2, 2011

कहा है अपनापन ........

खूब गौरईया बैठती , थे आँगन और मुडेर
अब बलिहारी खिड़किया ,जो खुलती है कुछ देर
रातो में तारे गिने , और खूब बुने सपने
खाली के खाली रहे , कोई भये न अपने
रात बियारी में रहा ,घी का सोंधापन
कहा गया वो बचपना कहा है अपनापन

जीवन भर हारे जीवन से .......

जीवन भर हारे जीवन से
जी न पाए तन -मन से
सांसो का ये हीरामन
कब कहा उड़ा ले जायेगा
बाहर की आखे खुली हुयी
भीतर की मुदरी मुंदी हुयी
सुख दुःख के इस धुप छाव में
चल -चल जीवन थक जायेगा
मिल -जुल कर हम नही रहे
बाहर ही बाहर जुड़े रहे
भीतर का कोहराम लिए
सत्य राम नाम हो जायेगा
गाजे बाजे बाजेंगे
डोली चढ़ कर जांएगे
रोज -रोज का अस्त -उदय
सब यही धरा रह जायेगा

मन भर जीवन ........

रोज रोज का जीना -मरना
रोज-रोज का अस्त उदय
क्या तुमको क्या मुझे मिला है
जीवन के इस वन में जी कर
ऊंगली भर थे बचपन के दिन
दियासलाई सा था यौवन
उमर गुजारी पल -पल हमने
जीवन के इस वन में जी कर
मन भर जीवन जी न पाए
तन भर ढके रहे जीवन भर
अधियारे में जिनको देखा
उजियारे पहचान न पाए
कही पुजारी पूजा बेचे
कही मौलवी मौलापन
नही मिला फिर कही देखने
बचपन का वो भोलापन
जीवन भर जी कर भी हम -तुम
मिल न पाए अपने से
क्या मुझको क्या तुम्हे मिला है
जीवन के इस वन में जी कर ........