बादल आये गांव में , हुई खूब बरसात
दिन तो सारा भीग गया भीगी सारी रात
नीम निबौरी खिल उठे ऐसी थी सौगात
छानी छपर चूने लगे जह तह रखी परात
पोखर डबरे भर गये नदियां में थी बाढ़
छप छप करते आये ओढ़े शाल असाढ़
फुहारे जो रिमझिम रही बनी थी वो घनघोर
दिन भर बरसी सांझ हुई फिर होने को भोर
छाता ले मुनिया चली छप छप करते पांव
सारी धूल से धुल गया वो पुरखो वाला गांव
रात ओसारी में कटी दिन में पहुचे खेत
भिनसारे की ओठनी रही ओउघायी लेत
Tuesday, August 31, 2010
Tuesday, August 24, 2010
जीरो बटा सन्नाटा......
मनौतियो और मान्यताओ को ,लादे शनिचर जीवन भर चले पर भाग ना पंहुचा लधे शुन्य न कुछ ले के आये थे न कुछ ले के जायेंगे उनके मन में यह विचार आता है की ससुरे जीवन भर घास छिलते रहे का बड़े असमंजस में है चलती बेरिया करे तो करे का जो सुना -सुनाया, सुना ,उन्होंने जीवन भर ,सो किया अब उम्र जब, चला चली की हो चली तो लगे है हिसाब किताब करने , पर बार -बार करने पर भी उनका हिसाब किताब सब गड्डम- गुड्डा हो जाता है पिसाब जरुर निकल आता है इस मेहनत पर सो अलग समस्या है ..ससुरी बार बार जोडने घटाने के बाद भी हिसाब लध्धे शुन पर जा टिकता है शनिचर कनफुजिया गए है शनिचर हलकान है किससे चलती बेरिया पूछे पाछे बाल सखा जो रहे ससुरे पहले ही निपुर-निपुरा गए है जो एक दो बचे है कौनो काम के नही ,बिशेषर है कान का पर्दा फाड़े बैठे है साल भर से लौंडे है , उनके तीन धोऊ चार पर काहे को सुने कि बुठापे में कुछ सुभीता दे दे बाप को कहते है की बुठाईदार सुन सुना के का करेंगे कक्कू जीवन भर तो सुने नही किसी की अब जरा विश्राम कर ले हम सोच रहे है काहे को जाते जवाते राडी दुखाई सुने, यही सुभीता का कम है बताओ .....
शनिचर कहते है मान्यता , मतलब कुछ ऐसा झालाम्झाला ,धारणाये और अनुमान , कुछ ऐसी बाते जिनका सर पैर न हो पर जिस पर मन विश्वास करता है लेकिन जो सच न हो ,सच लगती भर हो क्योकि आस पास के सभी जन उन बातों पर विश्वास करते है सो देखा देखी हम भी करने लगते है मान्यता का अर्थ ही है जो नही है लेकिन हम सब मान लिए है मान्यता चोरकट है जाली है जो अज्ञान के अधेरे में चलता है ज्ञान के प्रकाश में नही
शनिचर ने इस चक्कर में जीवन भर भूले की अब चलाचली की बेला में हिसाब किताब सब गड्ड -मड्ड स्वर्ग नर्क की मान्यता जिसकी कोई भौगोलिक स्थिती नही है ,इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलेगा ,सुख केवल अमीरो की बपौती है ,पैसा किस्मत से मिलता है ,पूजा न करेंगे तो भगवन नाराज हो जायेंगे फिर ले लेना बेट्टा सरस्वती जी घर घर पूजी जाती है पर नोबल पुरुस्कार पश्चमी देशो के नाम ,घर घर लक्ष्मी जी विराज मान है पर वो महरानी पाव तोड़ के अमरीका में बैठी है ....हम हिंदू ,मुसलमान सिख ,ईसाई की लड़ाई ही लड़ते रहे जीवन भर का मिला भैया .....
मूल मान्यता हम अपने आप को जीवन भर शरीर समझे रहे ,यह मेरा शरीर है ,यानी मै इससे अलग हुआ जब हमारे कपडे फट जाते है तब हम यह नही कहते की हम फट गए है लेकिन शरीर में दर्द होते ही कहते है दर्द हुआ यह है मूल मान्यता हम कपडे नही ,कपडे का उपयोग करने वाले है हम शरीर नही शरीर को चलाने वाले वाहक है ऐसी कुछ कुछ बाते शनिचर के मन में उपद्रव किये हुए है ,का करे किससे कहे और का कहे कोई इस भीड़ में सुनता नही दिखाई देता सब लगे है जीने में ,जीवन क्या है ,जीना क्या है वो ही जाने ...........शनिचर तो कहते है सब हिसाब किताब जीरो बट्टा सन्नाटा है भैया ..............
शनिचर कहते है मान्यता , मतलब कुछ ऐसा झालाम्झाला ,धारणाये और अनुमान , कुछ ऐसी बाते जिनका सर पैर न हो पर जिस पर मन विश्वास करता है लेकिन जो सच न हो ,सच लगती भर हो क्योकि आस पास के सभी जन उन बातों पर विश्वास करते है सो देखा देखी हम भी करने लगते है मान्यता का अर्थ ही है जो नही है लेकिन हम सब मान लिए है मान्यता चोरकट है जाली है जो अज्ञान के अधेरे में चलता है ज्ञान के प्रकाश में नही
शनिचर ने इस चक्कर में जीवन भर भूले की अब चलाचली की बेला में हिसाब किताब सब गड्ड -मड्ड स्वर्ग नर्क की मान्यता जिसकी कोई भौगोलिक स्थिती नही है ,इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलेगा ,सुख केवल अमीरो की बपौती है ,पैसा किस्मत से मिलता है ,पूजा न करेंगे तो भगवन नाराज हो जायेंगे फिर ले लेना बेट्टा सरस्वती जी घर घर पूजी जाती है पर नोबल पुरुस्कार पश्चमी देशो के नाम ,घर घर लक्ष्मी जी विराज मान है पर वो महरानी पाव तोड़ के अमरीका में बैठी है ....हम हिंदू ,मुसलमान सिख ,ईसाई की लड़ाई ही लड़ते रहे जीवन भर का मिला भैया .....
मूल मान्यता हम अपने आप को जीवन भर शरीर समझे रहे ,यह मेरा शरीर है ,यानी मै इससे अलग हुआ जब हमारे कपडे फट जाते है तब हम यह नही कहते की हम फट गए है लेकिन शरीर में दर्द होते ही कहते है दर्द हुआ यह है मूल मान्यता हम कपडे नही ,कपडे का उपयोग करने वाले है हम शरीर नही शरीर को चलाने वाले वाहक है ऐसी कुछ कुछ बाते शनिचर के मन में उपद्रव किये हुए है ,का करे किससे कहे और का कहे कोई इस भीड़ में सुनता नही दिखाई देता सब लगे है जीने में ,जीवन क्या है ,जीना क्या है वो ही जाने ...........शनिचर तो कहते है सब हिसाब किताब जीरो बट्टा सन्नाटा है भैया ..............
Saturday, August 21, 2010
तारो की बरतो वाला गांव
तारो की बारातों वाला गाँव ,यादो की बारातों वाला गाँव
नानी की कहानी वाला गाँव, काका के ककहरा वाला गाँव
नीम की निबौनी वाला गाँव, आँगन ओ ओसारी वाला गाँव
कीचड़ ओ कांदो वाला गाँव, नदियां में नावों वाला गाँव
महुआ ओ आमो वाला गाँव, खेत ओ खलिहानो वाला गाँव
पूजा ओ परछन वाला गाँव, तीज ओ त्योहारों वाला गाँव
मेल ओ मनुहारो वाला गाँव, छंद ओ मकरंद वाला गाँव
हँसी ओ ठिठौली वाला गाँव, झगडे ओ झासें वाला गाँव
पंच ओ परपंचो वाला गाँव, नेग ओ विदाई वाला गाँव
चौपड ओ चौपाल वाला गाँव, पान ओ पतौखी वाला गाँव
नन्द ओ भौजाई वाला गाँव, दिया ओ बाती वाला गाँव
ज्योनार ओ बियारी वाला गाँव, मस्ती ओ हुडदंग वाला गाँव
आदर ओ सम्मान वाला गाँव, नेह ओ स्नेह वाला गाँव
दुःख ओ सुख वाला गाँव, शेर ओ शियार वाला गाँव
भाजी ओ बरी वाला गाँव, बगिया ओ चिरईया वाला गाँव
बेला ओ करौदो वाला गाँव, ताल ओ तलईया वाला गाँव
नइहर ओ पीहर वाला गाँव ,मेध ओ बदरी वाला गाँव
धूल ओ पगडंडी वाला गाँव ,धूप ओ जाड़े वाला गाँव
साँझ ओ भिनसारे वाला गाँव, चाँद ओ सूरज वाला गाँव
तारो की बरतो वाला गाँव , बोलता प्रतीकों वाला गाँव
नानी की कहानी वाला गाँव, काका के ककहरा वाला गाँव
नीम की निबौनी वाला गाँव, आँगन ओ ओसारी वाला गाँव
कीचड़ ओ कांदो वाला गाँव, नदियां में नावों वाला गाँव
महुआ ओ आमो वाला गाँव, खेत ओ खलिहानो वाला गाँव
पूजा ओ परछन वाला गाँव, तीज ओ त्योहारों वाला गाँव
मेल ओ मनुहारो वाला गाँव, छंद ओ मकरंद वाला गाँव
हँसी ओ ठिठौली वाला गाँव, झगडे ओ झासें वाला गाँव
पंच ओ परपंचो वाला गाँव, नेग ओ विदाई वाला गाँव
चौपड ओ चौपाल वाला गाँव, पान ओ पतौखी वाला गाँव
नन्द ओ भौजाई वाला गाँव, दिया ओ बाती वाला गाँव
ज्योनार ओ बियारी वाला गाँव, मस्ती ओ हुडदंग वाला गाँव
आदर ओ सम्मान वाला गाँव, नेह ओ स्नेह वाला गाँव
दुःख ओ सुख वाला गाँव, शेर ओ शियार वाला गाँव
भाजी ओ बरी वाला गाँव, बगिया ओ चिरईया वाला गाँव
बेला ओ करौदो वाला गाँव, ताल ओ तलईया वाला गाँव
नइहर ओ पीहर वाला गाँव ,मेध ओ बदरी वाला गाँव
धूल ओ पगडंडी वाला गाँव ,धूप ओ जाड़े वाला गाँव
साँझ ओ भिनसारे वाला गाँव, चाँद ओ सूरज वाला गाँव
तारो की बरतो वाला गाँव , बोलता प्रतीकों वाला गाँव
महुआ हो गया मन .........
फागुन आया गांव में महुआ हो गया मन
अमलतास की डाल से बोले हीरा मन
अभी अभी तो पास थे अभी अभी है दूर
मन से अब भी पास है तन से कोशो दूर
छिप छिप कर मिलते रहे अब तक कितनी बार
गुलमोहर की छाव में पकड़ गए कचनार
गली गली में राधाये गली गली में कृष्ण
मन ही मन उत्तर मिले नही पूछने प्रश्न
वैसे तो सब भूल गए फिर भी है कुछ याद
झरने जैसी थी हँसी मिसरी जैसी बात
अमलतास की डाल से बोले हीरा मन
अभी अभी तो पास थे अभी अभी है दूर
मन से अब भी पास है तन से कोशो दूर
छिप छिप कर मिलते रहे अब तक कितनी बार
गुलमोहर की छाव में पकड़ गए कचनार
गली गली में राधाये गली गली में कृष्ण
मन ही मन उत्तर मिले नही पूछने प्रश्न
वैसे तो सब भूल गए फिर भी है कुछ याद
झरने जैसी थी हँसी मिसरी जैसी बात
Thursday, August 12, 2010
झेलो झेलो .............
शनिचर कहते है, झेलना, मानव स्वभाव यदि मानव दानव न बन जाये तो वह अपने इस स्वाभाव को जन्म से म्रत्यु तक निभाता है अपनी स्वार्थ सिद्दी के लिए झेलना लाजमी भी है जैसे पैदल चलना टहलना स्वास्थ के लिए इन लोगो से जो घूमते टहलते है उनसे धीरे से पूछो तो जोर से बताते है ,घुमने ,टहलने केलाभ ,वे लगे हाथ बता देते है गुण भी कोई खूसट न हुआतोशनिचर कहते है यदि कोई जीवन भर पैदल चले /घुमे तो उसे बबासीर भी हो सकता है कभी अलग से शनिचर इस नाजुक विषय पर एवररेडी टार्च से प्रकाश डालेंगे
खैर चर्चा हो रही है झेलने पर ,रामखिलावन खटिया में अपनी चिरपरिचित मुद्रा में उतान पड़े है शनिचर प्रकास डाल रहे है बगल में बलभद्र उकडू विराजमान है तीनो की तिकड़ी के अलावा चौथे आप है ,तो सुनिए शनिचर क्या कह रहे है ,दादा हम अपने स्वभाव को कैसे बदल सकते है आम के पेड़ में जामुन कहा लगती है ,जिसका जो स्वभाव है उसी के अनुसार वह जीवन भर एक्ट करता है फिर मर मुरा जाता है चना मुर्रा की तरह हमारे यहाँ मानव नाम के प्राणी की बेधड़क पैदावार है बिना खाद पानी के अच्छी फसल तैयार हो जाती है लोग बाग़ इस विषय पर एक दुसरे को मदद करते भी देखे गए है शनिचर कहते है की मानव ,जीवन भर अपना धर्म निभाता है और निभाते निभाते ,निकल लेता है उसकी जगह कुछ और लोग पैदा हो जाते है म्रत्यु के डर से जन्म नहीं रुकते ऐसा शनिचर का कहना है
भारत भूमी में झेलने की प्रथा ,परम्परा युगों युगों से अहिर्निश चली आ रही है , जिसे हम आज भी निभा रहे है निभा इस लिए रहे है की न निभाने का दम नही है ,न निभाए तो निपूर न जाये ऐसा शनिचर कहते है आगे कहते है की हमने दुसरे रीति रिवाज संस्कार ,सभ्यता हिंद महा सागर में बड़ी सी चट्टान में बांध कर डूबा दिए है झेलने भर की प्रथा लिए हम घूम रहे है
यदि झेलने को खेल के रूप में लिया जाये और उसे कामनवेल्थ /ओलम्पिक आदि में खेला जाये तो हमे स्वर्ण के नीचे कोई पदक नही मिल सकता यह ध्रुव सत्य है झेलने ,झेलवाने में हमारा कोई सानी इस धरा पर नही धरा है शनिचर बोले
झेलने के लिए हम सदा सदा से सदैव तैयार रहते है झेलने के कण हमारे शरीर में हिमोग्लोबीन की तरह रहते है झेलने का हमारा गौरवशाली इतिहास रहा है जिसे हमने मेंटेन कर रखा है इतिहास के पन्ने पलटो पल्ट्टू राम झेलने की गौरव गाथाओं से भरे पड़े है झेलने की हमारी विरासत जो हमें मिली है ज्यो की त्यों हम देश की नई फसल को सौपने का विचार रखते है
आज के परिपेक्ष में जनता ,नेता जी को झेल रही है ,नेता जनता को एक दुसरे को दोनों समयानुसार सुविधानुसार झेल रहे है जनता महगाई झेल रही है ,देखिये जब एक रुपिया का दस सेर घी मिलता था तब भी वो महगा लगता था और अब जब पांच सौ रूपया का एक किलो मिल रहा है तो भी झेल रहे है अग्रेजो को भी खूब झेला इस देश ने आजादी के पहले ,एक भोले भंडारी है भगवान शंकर ,विष ही झेल गए ,झेलने में अमरत्व के गुण छिपे है ऐसा भी शनिचर कहते है कुछ लोग इसी लिए भी जीवन भर एक दुसरे को झेलते रहते है अमर तो होते नहीं मर जरुर जाते है इस चक्कर में
स्कुल में लौड़े मास्टर को झेल रहे है मास्टर लौड़ो को ,ऑफिस में अफसर ,मुलाजिमो को ,मुलाजिम अफसर को .कौन किसे और क्यों झेल रहा है ,कब से झेल रहा है ,कब तक झेलेगा बीच में पटक तो नहीं देगा ये सब शोध के विषय है शनिचर कहते है चोर पुलिस के साथ साथ उसके डंडे को भी झेल रही है एक साथ दो दो को ,कभी कभी इस देश में एक साथ कियो को झेलना पड़ता है ये तो भला हो की हम सब इसके आदी है नही तो बैंड बज जाये हमारी सड़के चालीस चक्के वाले ट्रेलर को झेलती है जनता गड्डो वाली सडक को
इस देश में हम शोकिया खेल खेल में कभी बाढ़ तो कभी सूखा कभी भूकम्प को भी झेलते है पहले पुरखे कहते है की हम लोग अपने जमाने में प्लेग ,हैजा ,चेचक ,टीवी और न जाने क्या क्या झेलते रहे है ,मतलब झेलने की हमारी स्वस्थ परम्परा रही है जिसे हम ज्यो का त्यों निभा रहे है
झेलना शाश्वत है हम और हमारा देश झेलने में विश्व में अपना एक अलग स्थान रखता है और अपने स्थान से हिलता डुलता भी नही है ,गुरुत्वाकर्षण के सिधान्तो का पालन करता है इस देश में जो जितना बड़ा झेलू उसका कद भी उतना बड़ा ,व्यक्तित्व विकाश के लिए झेलुपन एक अनिवार्यता है ,बिना इस गुण के आप इस देश में कुछ नही कर सकते विकसित नही हो सकते ,विकसित नही होगे तो पीछे राह जायेंगे कोई पीछे रहना नही चाहता इस युग में ,चठ बैठ रहे है जीवन की मैराथन में एक दुसरे पर
शनिचर कहते है झेलने से शांती बनी रहती है शांती में ही विकाश होता है जो छिपा है उसे बाहर निकलना है जो ठका है उसे उघाड़ना है ,जो बिना झेलने के सम्भव नही है सो हम झेल रहे है ............झेलो झेलो ............
खैर चर्चा हो रही है झेलने पर ,रामखिलावन खटिया में अपनी चिरपरिचित मुद्रा में उतान पड़े है शनिचर प्रकास डाल रहे है बगल में बलभद्र उकडू विराजमान है तीनो की तिकड़ी के अलावा चौथे आप है ,तो सुनिए शनिचर क्या कह रहे है ,दादा हम अपने स्वभाव को कैसे बदल सकते है आम के पेड़ में जामुन कहा लगती है ,जिसका जो स्वभाव है उसी के अनुसार वह जीवन भर एक्ट करता है फिर मर मुरा जाता है चना मुर्रा की तरह हमारे यहाँ मानव नाम के प्राणी की बेधड़क पैदावार है बिना खाद पानी के अच्छी फसल तैयार हो जाती है लोग बाग़ इस विषय पर एक दुसरे को मदद करते भी देखे गए है शनिचर कहते है की मानव ,जीवन भर अपना धर्म निभाता है और निभाते निभाते ,निकल लेता है उसकी जगह कुछ और लोग पैदा हो जाते है म्रत्यु के डर से जन्म नहीं रुकते ऐसा शनिचर का कहना है
भारत भूमी में झेलने की प्रथा ,परम्परा युगों युगों से अहिर्निश चली आ रही है , जिसे हम आज भी निभा रहे है निभा इस लिए रहे है की न निभाने का दम नही है ,न निभाए तो निपूर न जाये ऐसा शनिचर कहते है आगे कहते है की हमने दुसरे रीति रिवाज संस्कार ,सभ्यता हिंद महा सागर में बड़ी सी चट्टान में बांध कर डूबा दिए है झेलने भर की प्रथा लिए हम घूम रहे है
यदि झेलने को खेल के रूप में लिया जाये और उसे कामनवेल्थ /ओलम्पिक आदि में खेला जाये तो हमे स्वर्ण के नीचे कोई पदक नही मिल सकता यह ध्रुव सत्य है झेलने ,झेलवाने में हमारा कोई सानी इस धरा पर नही धरा है शनिचर बोले
झेलने के लिए हम सदा सदा से सदैव तैयार रहते है झेलने के कण हमारे शरीर में हिमोग्लोबीन की तरह रहते है झेलने का हमारा गौरवशाली इतिहास रहा है जिसे हमने मेंटेन कर रखा है इतिहास के पन्ने पलटो पल्ट्टू राम झेलने की गौरव गाथाओं से भरे पड़े है झेलने की हमारी विरासत जो हमें मिली है ज्यो की त्यों हम देश की नई फसल को सौपने का विचार रखते है
आज के परिपेक्ष में जनता ,नेता जी को झेल रही है ,नेता जनता को एक दुसरे को दोनों समयानुसार सुविधानुसार झेल रहे है जनता महगाई झेल रही है ,देखिये जब एक रुपिया का दस सेर घी मिलता था तब भी वो महगा लगता था और अब जब पांच सौ रूपया का एक किलो मिल रहा है तो भी झेल रहे है अग्रेजो को भी खूब झेला इस देश ने आजादी के पहले ,एक भोले भंडारी है भगवान शंकर ,विष ही झेल गए ,झेलने में अमरत्व के गुण छिपे है ऐसा भी शनिचर कहते है कुछ लोग इसी लिए भी जीवन भर एक दुसरे को झेलते रहते है अमर तो होते नहीं मर जरुर जाते है इस चक्कर में
स्कुल में लौड़े मास्टर को झेल रहे है मास्टर लौड़ो को ,ऑफिस में अफसर ,मुलाजिमो को ,मुलाजिम अफसर को .कौन किसे और क्यों झेल रहा है ,कब से झेल रहा है ,कब तक झेलेगा बीच में पटक तो नहीं देगा ये सब शोध के विषय है शनिचर कहते है चोर पुलिस के साथ साथ उसके डंडे को भी झेल रही है एक साथ दो दो को ,कभी कभी इस देश में एक साथ कियो को झेलना पड़ता है ये तो भला हो की हम सब इसके आदी है नही तो बैंड बज जाये हमारी सड़के चालीस चक्के वाले ट्रेलर को झेलती है जनता गड्डो वाली सडक को
इस देश में हम शोकिया खेल खेल में कभी बाढ़ तो कभी सूखा कभी भूकम्प को भी झेलते है पहले पुरखे कहते है की हम लोग अपने जमाने में प्लेग ,हैजा ,चेचक ,टीवी और न जाने क्या क्या झेलते रहे है ,मतलब झेलने की हमारी स्वस्थ परम्परा रही है जिसे हम ज्यो का त्यों निभा रहे है
झेलना शाश्वत है हम और हमारा देश झेलने में विश्व में अपना एक अलग स्थान रखता है और अपने स्थान से हिलता डुलता भी नही है ,गुरुत्वाकर्षण के सिधान्तो का पालन करता है इस देश में जो जितना बड़ा झेलू उसका कद भी उतना बड़ा ,व्यक्तित्व विकाश के लिए झेलुपन एक अनिवार्यता है ,बिना इस गुण के आप इस देश में कुछ नही कर सकते विकसित नही हो सकते ,विकसित नही होगे तो पीछे राह जायेंगे कोई पीछे रहना नही चाहता इस युग में ,चठ बैठ रहे है जीवन की मैराथन में एक दुसरे पर
शनिचर कहते है झेलने से शांती बनी रहती है शांती में ही विकाश होता है जो छिपा है उसे बाहर निकलना है जो ठका है उसे उघाड़ना है ,जो बिना झेलने के सम्भव नही है सो हम झेल रहे है ............झेलो झेलो ............
Thursday, July 29, 2010
क्या कहे ...........
जिन्हें मालूम नही है वे कहे जा रहे है और जिन्हें मालूम है या मालूम हो गया है वे चुप्पी साध लेते है |बकबक करने वालो की तादात देखे तो , कैसे बठती चली जा रही है | चारो तरफ ज्ञानियों की फौज जमी हुई है| बिना ज्ञान बघारे उन्हें नीद नही आती ,कब्ज हो जाये तो उसे भी लिए ज्ञान बाटने निकल पड़ते है गलियों गलियों | किसे सुधार रहे है |खुद क्या है |उस तरफ ध्यान नही है ये मनोदशा किसकी है और किसकी नहीं है ये शोध की विषय है |
घर -परिवार ,गाव ,कस्बा ,देश प्रदेश कहा कहा की बात करे ,नेता देश सुधारने में लगे है खुद बिगड़ जाये कोई हर्ज नही देश सुधार कर ही मानेगे |
कहने से कुछ होता है ,कुछ नही, बहुत कुछ होता है ,तुलसीदास की पत्नी ने ही उनसे कुछ कहा था जिससे वे रामभक्त हो गए ,कालिदास को भी ऐसे ही कुछ संकेत विध्योत्मा ने ही दिए थे ,पर क्या अब ऐसे कहने और सुनने वाले है ?
बात बात पर खुद को सही और दुसरे को गलत सिद्ध करने वाले हम और आप कभी अपना भी गिरेवान झांक कर देखते है ? कितनी तेजी से हम और हमारा देश उस दिशा की तरफ चल निकला है जिधर सम्मान नही है आदर ,सम्मान ,प्रतिष्ठा ,अपनापन ,प्रेम -व्यवहार ,तीज -त्यौहार ,नाते -रिश्ते ,भाषा -परिधान ,कला -संस्कृति , तान -बाणखान -पान ,पता नही सब कुछ बदला बदला सा है , मुझे तो ऐसे ही दिखता है हो सकता है मोतियाबिंद हो ,पर हो सकता ,आपको सही सही दिखता हो ?
परिवर्तन ही उन्नति है ,ऐसा शनिचर का कहना है ,आपका भी है या नहीं ,पता नहीं ,पर कैसा परिवर्तन ? आज लिया निर्णय कल सही होगा दावा नहीं कर सकते ,पर जब लेते है तो यह मन कर ही लेते है की सही निर्णय ही ले रहे है |वो आगे जा कर गलत साबित हो तो हम क्या करे ,सब कुछ अच्छे अच्छे के लिए तो करते है ,कौन गलत निर्णय लेता है वो तो समय है जो सही को गलत और गलत को सही साबित कर देता है फिर हम क्यों अपनी उर्जा दुसरे को गलत और अपने को सही लगाने में खर्च कर रहे है ?
शनिचर एक प्रार्थना गाते नहीं अघाते ,अब सौप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथो में ,है जीत तुम्हारे हाथो में और हार तुम्हारे हाथो में ......गुनगुनाते रहते है | सब की मालिक एक है तो फिर हम क्यों मालिक की रोल अदा करने में सर्री शक्ति भिडाये हुए है ,जब कुछ ले कर जाना नही है तो फिर इतनी माथा पच्ची क्यों काहे के लिए ,कहते है शांति नहीं रही ,अरे कहा से रहे और क्यों रहे ,उसे रहने के लिए जगह भी छोड़ी है की वह रहे ,हम फुल है जो नहीं है वो जुगाड़ में है फुल होने की ,मौका तलाश रहे है ,मौके का लाभ उठाने में भी हमारा कोई सानी नही ,फिर क्यों दुखी होते है हम | दुसरे के सुख को देख कर भी हम दुखी हो जाते है , सुख केवल अपने तक सियामित कर रखे है हमने ,जैसे ही तुम्हे सुखी देखते है दुखी हो जाते है हम | क्या करे दुसरे को देखना बंद कर दे .....|
जीवन गुजर रहा है और हम भी गुजर रहे है ,आम के पेड़ में आम ही फलते है सब ज्ञान हमें है बात यह नही है बात यह है की हम पाखंडी है मन से वचन से और कर्म से एक नहीं है ,मुह में राम बगल में छुरी कहावत आज बेतहासा फल- फूल रही है ,कब हम किसे डिच दे जाये हमें खुद पता नही ऐसा शनिचर की सोच है |
Thursday, July 8, 2010
डंडा पूरण-4
डंडे के स्वरुप और नाम को ले कर कुछ लोगो और क्षेत्रो में मतभेद उभारना स्वाभविक है ,ये देश भी तो ससुरा इतना बड़ा है कि कुछ दूर चलो नहीं कि बोली बदल जाती है और कुछ दूर चलो कि भाषा बदल जाती है कितनी बोली सीखे और कितनी भाषा ,हम तो दिए रहते है अपनी भाषा में प्रवचन जिन्हें समझ में आये वो समझ नहीं आये तो चुपचाप पालथी मार के बैठे ,चूचा न करे नहीं तो दिया ये चिमटा घुमा के शनिचर अपनी ओउकात में आ गए ,मुद्राए न बदलो नहीं तो फल नहीं मिलेगा पूरा पूरा ,फल के चक्कर में निपुर जाओ ,पर मुद्रा न बदलो ,शनिचर की नसी एक के ऊपर एक हो रही थी ,उसे लगा जैसे खून की आवागमन ही बंद प्राय हो गया है ,उसने हडबडा कर पाव सीधे किये ,उसके मन में चल रहा था कि ये कैसा गीता का ज्ञान है काम करो ,फल कि इच्झा न करो ,उसमे तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है ,मजूरी कौन देगा ,काम तो करे ,मजूरी न मांगे क्या बात है गीता का ज्ञान है कि भूखे मरवाने का हथकंडा किशन महराज ने भी कम लफड़े नहीं किये है का हमें मालूम नही , खैर चलता है कहा हम कहा प्रभु ,कहा राजा भोज कहा गंगू तेली ,पर है कुछ न कुछ .........जो केवल डंडे से ही ठीक किया जा सकता है इस लिए भैया डंडा पुराण सुन ही लेने भलाई है सो शनिचर फिर सुनने लगे .....
उधर रामखिलावन उवाच रहे थे ..हे श्रेठ नरो ,सुनो डंडा विहीन नर, नरक का भागी ही बनाने होता है मुसीबतों की पर्वत श्रख्लाये उसे उभरने नहीं देती वह उठ उठ कर भी जीवन भर गिरा रहता है डंडा ही उसे उठा सकने की ताकत रखता है और वह नर फिर डंडे की शरण में जाता है जिससे उसका उद्धार होता है
क्रमशः
Saturday, June 26, 2010
डंडा पुराण -3
खजुहा कुत्ताजो काफी देर से बदला लेने का इंतजार कर रहा था ,उसे मौका नहीं मिल रहा था सो इंतजार करते करते सो गया उधर डंडा पुराण फुल स्पीड में चालू था रामखिलावन बोले सुनो वत्स ............शनिचर के मुह से निकल गया सुनाओ अब तो थक गए पर धीरे से.......... आवाज ,प्रभु तक पहुचते पहुचते राह गयी नहीं तो एक नया बबाल और खड़ा हो जाता जो अभी बैठा था ,शनिचर वैसे भी बबाल मास्टर थे कही भी वे ,इस काम को अंजाम दे देते और खिसक लेते खैर .........
तब तक कुत्ता भी छपकी तोड़ ,मोड़ के बैठ गया , रामखिलावन बोले ,डंडा के कारन ही बुठापा कटता है ,डंडा बुठापे में सहारा होता है क्यों की कमर और किसी किसी के घुटने निपुर जाते है ,तब बस डंडा ही उन्हें अपना सहयोग देता है इस लिए हे वत्स जो विपत्ति में साथ खड़ा रहे ,उसकी महिमा तो अपरम्पार ही होगी कौन खड़ा होता है चलती बेरिया में सब उगते सूरज को सलाम करते है ,शंकराचार्य जैसे विद्वान डंडे के सहारे ही देश देशाटन करते थे ,देखा नहीं फोटुओ में बिना डंडे के शंकराचार्य को देखा है कभी ,ये बात अलग है की उसे दंड कहते है ,
क्रमश ................
तब तक कुत्ता भी छपकी तोड़ ,मोड़ के बैठ गया , रामखिलावन बोले ,डंडा के कारन ही बुठापा कटता है ,डंडा बुठापे में सहारा होता है क्यों की कमर और किसी किसी के घुटने निपुर जाते है ,तब बस डंडा ही उन्हें अपना सहयोग देता है इस लिए हे वत्स जो विपत्ति में साथ खड़ा रहे ,उसकी महिमा तो अपरम्पार ही होगी कौन खड़ा होता है चलती बेरिया में सब उगते सूरज को सलाम करते है ,शंकराचार्य जैसे विद्वान डंडे के सहारे ही देश देशाटन करते थे ,देखा नहीं फोटुओ में बिना डंडे के शंकराचार्य को देखा है कभी ,ये बात अलग है की उसे दंड कहते है ,
क्रमश ................
Thursday, June 24, 2010
डंडा पुराण -2
रामखिलावन ,व्यास गादी से उतरे,और खरामा खरामा ,कुछ दूर लगी झाड़ियो के पीछे उकडू बैठने ही वाले थे ,जहा पहले से ही एक खजुहा कुत्ता दीन दुनिया से दूर अपनी खुजलाहट दूर करने में व्यस्त था ,रामखिलावन के पद चाप सुन मन ही मन गरियाने लगा , ससुरे यहाँ भी मरने चले आये कौन है ,एक बार तो उसका मन हुआ की गुर्राए पर ,हुआ यु की उसके गुर्राने पहले ही उसके ऊपर रामखिलावन के मूत्र विसर्जन की धार आ गिरी ,लडखडा के उठने और दुम दावा के निकल लेने के अलावा उसे कोई और चारा नहीं दिखा , उसने अपनी भलाई भी इसी में समझी सो निति के अनुसार उसने काम किया, पर मन में तय कर लिया की देर सबेर ससुरे रामखिलावन को साइड पोज देना है
रामखिलावन हल्के हो वापस लौट चले ,इस बीच बलभद्र और सनीचर भिड़े हुए थे की या ससुरी डंडा पुराण कब ख़त्म होगा ,कुछ परशादी वरशादी की भी तो बनती है ,पर कुछ दिख नहीं रहा है बस पेले जा रहे प्रभु ,डंडा पुराण
अब तक रामखिलावन ने अपना आसन ग्रहण कर लिया ,दोनों श्रोता करते क्या न करते फिर विश्राम की अवस्था में बैठ गए रामखिलावन बोले हे वत्स सुनो यह कथा पहली बार ,मैंने स्वयं जब सुनी तो मुझे भी डंडे का रहस्य और महत्व समझ में आया ,इस लिए कहता हु की सुनो और दूसरो को सुनाने का फल लूटो ,लुट सके तो लुट नहीं तो अंत कल पश्तायेगा जब प्राण जायेंगे छुट ,ये कोई रेल गाड़ी नहीं छुट रही जो कल फिर मिल जाएगी ,प्राण छूटे सो छूटे ठुठे नहीं मिलेंगे फिर की कहा गए बेटा ,इस लिए ध्यान लगा कर सुन ........जो सुनाया जा रहा है
शनिचर मन ही मन सोच रहा था की कहा चुतियाई में फस गए ,डंडा पुराण ,कंडा पुराण के चक्कर में ,बलभद्र भी कुछ अनमने से दिखा रहे थे पर शो नहीं कर रहे थे की कही दादा नाराज न हो जाये ,ओ ले जुतियाये ..........सो डर के मरे हा हु बीच बीच में कह रहे थे
उधर वो खजुहा कुत्ता भी अपनी तरफ से फुल तैयारी में था कुछ छिप कर वो ऐसा बैठ था की बस रामखिलावन इसकी पहुच में आये नहीं की उअसने धार कटा भले ही दो चार डंडे घाल जाये ,डंडा पुराण चल भी रहा है डंडे की परशादी ही तो खाने को मिलेगी ,वो भी दम साधे पुराण सुनाने वाला तीसरा श्रोता था ,यह बात अलग है की उसके डंडा पुराण सुनाने का प्रयोजन दूसरा ही था
क्रमशः ...........
रामखिलावन हल्के हो वापस लौट चले ,इस बीच बलभद्र और सनीचर भिड़े हुए थे की या ससुरी डंडा पुराण कब ख़त्म होगा ,कुछ परशादी वरशादी की भी तो बनती है ,पर कुछ दिख नहीं रहा है बस पेले जा रहे प्रभु ,डंडा पुराण
अब तक रामखिलावन ने अपना आसन ग्रहण कर लिया ,दोनों श्रोता करते क्या न करते फिर विश्राम की अवस्था में बैठ गए रामखिलावन बोले हे वत्स सुनो यह कथा पहली बार ,मैंने स्वयं जब सुनी तो मुझे भी डंडे का रहस्य और महत्व समझ में आया ,इस लिए कहता हु की सुनो और दूसरो को सुनाने का फल लूटो ,लुट सके तो लुट नहीं तो अंत कल पश्तायेगा जब प्राण जायेंगे छुट ,ये कोई रेल गाड़ी नहीं छुट रही जो कल फिर मिल जाएगी ,प्राण छूटे सो छूटे ठुठे नहीं मिलेंगे फिर की कहा गए बेटा ,इस लिए ध्यान लगा कर सुन ........जो सुनाया जा रहा है
शनिचर मन ही मन सोच रहा था की कहा चुतियाई में फस गए ,डंडा पुराण ,कंडा पुराण के चक्कर में ,बलभद्र भी कुछ अनमने से दिखा रहे थे पर शो नहीं कर रहे थे की कही दादा नाराज न हो जाये ,ओ ले जुतियाये ..........सो डर के मरे हा हु बीच बीच में कह रहे थे
उधर वो खजुहा कुत्ता भी अपनी तरफ से फुल तैयारी में था कुछ छिप कर वो ऐसा बैठ था की बस रामखिलावन इसकी पहुच में आये नहीं की उअसने धार कटा भले ही दो चार डंडे घाल जाये ,डंडा पुराण चल भी रहा है डंडे की परशादी ही तो खाने को मिलेगी ,वो भी दम साधे पुराण सुनाने वाला तीसरा श्रोता था ,यह बात अलग है की उसके डंडा पुराण सुनाने का प्रयोजन दूसरा ही था
क्रमशः ...........
Wednesday, June 23, 2010
रामखिलावन कहिन .......डंडा पुराण
रामखिलावन अपने दोनों प्रिय शिष्यों बलभद्र और शनिचर को डंडा -पुराण पर व्याखा सुना रहे थे ,कह रहे थे डंडा बेमिशाल है ,पुलिस हमेशा डंडे को अपने साथ रखती है ,जिस प्रकार बनिया बक्काल लझमी जी सदा सहाय रहे चिलाते रहते है ये बात अलग है की लक्झमी जी इन चुतियो के चक्कर में न फस कर अमरीका में पाव तोड़ कर विराजमान हो गयी है पर इन को क्या पता ससुरे बिना सुर ताल के सदा सहाय रहे सहाय रहे भुनभुनाते गुनगुनाते रहते है सोचते होगे ससुरे कभी न कभी तो मैया सुनेगी उसकी दरबार में देर है पर अंधेर नहीं है उसी प्रकार पुलिस भी डंडा सदा सहाय का नारा नरियाती रहती है डंडे का अपना महत्व है जग जाहिर है बापू का फोटू बिना डंडे के अधुरा अधुरा लगता है सारी दुनिया डंडे वाले नेता को बापू के नाम से जानती है कोई शक ..........नहीं दादा, सत्य वचन, सत्य वचन अहा ....हा .... क्या बात है जय हो जय हो दोनों महानुभाव क्रमशः खिसनिपोरते हुए प्रश्नता की मुद्रा में भाव विभोर होते हुए बोले
डंडे के बिना झंडे का कोई महत्व नहीं है बच्चा ,झंडा अपने आप में एक कपडा मात्र है पर वह ,जब डंडा के सहारे लहराता है तो वह झंडा कहलाता है क्यों बच्चा समझे ,दोनों इस बार एक साथ बोले अह्ह्ह ......सत्य वचन सत्य वचन जय हो जय हो............सामने रखी शालिग्राम की गौटेया इस बीच अपने मूल स्थान को छोड़ चुकी थी और ठ्नगते ठ्नगते कुछ दूर जा पड़ी थी उसके ऊपर रखे फूल और अकझत अपनी अपनी जगह बना कर दीन हीन मुद्रा में पड़े थे ,प्रवचन जारी था .... हे वत्स ,सुनो कुछ झंडे ऐसे होते है जो एक बार डंडे में घुसे नहीं की फिर मरते दम तक बाहर नहीं निकलते फट- फूटा जायेंगे, पर दामन नही छोड़ेंगे कल ही संगम में टिके सात फूल वाले पण्डे का झंडा ,अपने डंडे से बोल रहा था खूब साथ निभाया भाई , रामखिलावन ऐसे बता रहे थे जैसे वे झंडे और डंडे की भाषा जानते हो शनिचर को कुछ शक हुआ पर चुप रहा ये कब सीख आये ये भाषा विज्ञानं ,शनिचर का यह विचार रामखिलावन को शंदेह की परिधि में ले ही आया था की ,तभी बुठाऊ बोल पड़े हे वत्स जिस प्रकार बिना शरीर के आत्मा का कोई अस्तित्व नही है बिना आत्मा के शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है ठीक उसी प्रकार बिना डंडे के झंडे का कोई अस्तित्व नहीं होता अब तक बलभद्र जो पालथी मारे प्रवचन की मार झेल रहे थे , के पाव में झुनझुनी चठ गयी थी और उधर शनिचर तितुर लड़ने वाली मुद्रा में आ गए थे यानि की उनकी एक नश कभी भी दगा देने की स्थिति में आ गयी थी ,वो मौका देख लघुशंका से निवृत होना चाह रहा था पर ,गुरु शिष्य की परम्परा बीच में आ रही थी ,जिसका बोझा इन दोनों के ऊपर टिका था सो दोनों अपनी अपनी टिकाये सुन रहे थे ,जब की शरीर के कुछ अंग सुनते सुनते सुन्न हो चले थे आखिर गुरु शिष्य परम्परा भी तो कुछ चीज होती है मायने रखती है ,इस परम्परा को निभाने में शनिचर खुद निपटे जा रहे थे पर क्या करते ...
डंडा पुराण के बीच शनिचर चल दिए खेत की तरफ .............जब वे हो..... हा ,कर, आये तब तक तीन चार अध्याय समाप्त हो गए थे
जो चल रहा था उसे उसने सुनना सुरु किया ,रामखिलावन कह रहे थे कुछ लोग ,कुछ लोगो के डंडा डाल देने की विद्या जानते है जिसका वे लोग यदा कदा प्रयोग भी करते रहते है पर अब इस विद्या का उपयोग कम दुरूपयोग ज्यादा होने लगा है ,कुछ लोग डंडा डालने के बाद डंडा निकालते नहीं है जिससे ,जिसमे डंडा डाला जाता है तकलीफ में आ जाता है और वह तिरझा-तिरझा चलने पर मजबूर हो जाता है यह प्रथा ठीक नहीं है यदि किसी के डंडा डाला भी जाये तो सही समय में निकाल भी लिया जाये नहीं तो स्थिति नियंत्रण के बाहर भी हो सकती है ,आज कल राजनीती में एक पार्टी दूसरी पार्टी के डंडा डाले ही रहती है ,यह एक फैशन सा हो चला है ,कोई भी फैशन बहुत दिन नहीं चलता ,पर यह साला डंडा डालने का चलन शदियों पुराना है ,हर युग में कोई न कोई किसी न किसी के डंडा डाले ही रहा है ,इतिहास गवाह है ,इतिहास की किताबे डंडा डालने और डलवाने वालो से भरी पड़ी है ,किसने किसके किस सन में डंडा डाला था याद रख पाना विद्यार्थियों के लिए मुश्किल कर देता है ,डंडा क्यों डाला और कहा डाला यह याद रखना तो लोहे के चने चबाने जैसा है ,कुछ लोगो का यह सोच हो सकता है की यह सब भद्र नहीं है ,डंडे के ऊपर यह नहीं लिखा जाना चाहिए जिससे अश्लीलता झलकती हो ,अश्लीलता डंडे में नहीं है और न लिखने में ये तो आपके दीमक का फितूर है जो आप को सही लगता है वही भर सत्य है बाकि सब झूठ ,भैया कोई भी लल्लू यह दावे के साथ यह नहीं कह सकता की यही सत्य है
हे वत्स सुनो .और दूसरो को भी सुनाओ ...........
क्रमश ....................
डंडे के बिना झंडे का कोई महत्व नहीं है बच्चा ,झंडा अपने आप में एक कपडा मात्र है पर वह ,जब डंडा के सहारे लहराता है तो वह झंडा कहलाता है क्यों बच्चा समझे ,दोनों इस बार एक साथ बोले अह्ह्ह ......सत्य वचन सत्य वचन जय हो जय हो............सामने रखी शालिग्राम की गौटेया इस बीच अपने मूल स्थान को छोड़ चुकी थी और ठ्नगते ठ्नगते कुछ दूर जा पड़ी थी उसके ऊपर रखे फूल और अकझत अपनी अपनी जगह बना कर दीन हीन मुद्रा में पड़े थे ,प्रवचन जारी था .... हे वत्स ,सुनो कुछ झंडे ऐसे होते है जो एक बार डंडे में घुसे नहीं की फिर मरते दम तक बाहर नहीं निकलते फट- फूटा जायेंगे, पर दामन नही छोड़ेंगे कल ही संगम में टिके सात फूल वाले पण्डे का झंडा ,अपने डंडे से बोल रहा था खूब साथ निभाया भाई , रामखिलावन ऐसे बता रहे थे जैसे वे झंडे और डंडे की भाषा जानते हो शनिचर को कुछ शक हुआ पर चुप रहा ये कब सीख आये ये भाषा विज्ञानं ,शनिचर का यह विचार रामखिलावन को शंदेह की परिधि में ले ही आया था की ,तभी बुठाऊ बोल पड़े हे वत्स जिस प्रकार बिना शरीर के आत्मा का कोई अस्तित्व नही है बिना आत्मा के शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है ठीक उसी प्रकार बिना डंडे के झंडे का कोई अस्तित्व नहीं होता अब तक बलभद्र जो पालथी मारे प्रवचन की मार झेल रहे थे , के पाव में झुनझुनी चठ गयी थी और उधर शनिचर तितुर लड़ने वाली मुद्रा में आ गए थे यानि की उनकी एक नश कभी भी दगा देने की स्थिति में आ गयी थी ,वो मौका देख लघुशंका से निवृत होना चाह रहा था पर ,गुरु शिष्य की परम्परा बीच में आ रही थी ,जिसका बोझा इन दोनों के ऊपर टिका था सो दोनों अपनी अपनी टिकाये सुन रहे थे ,जब की शरीर के कुछ अंग सुनते सुनते सुन्न हो चले थे आखिर गुरु शिष्य परम्परा भी तो कुछ चीज होती है मायने रखती है ,इस परम्परा को निभाने में शनिचर खुद निपटे जा रहे थे पर क्या करते ...
डंडा पुराण के बीच शनिचर चल दिए खेत की तरफ .............जब वे हो..... हा ,कर, आये तब तक तीन चार अध्याय समाप्त हो गए थे
जो चल रहा था उसे उसने सुनना सुरु किया ,रामखिलावन कह रहे थे कुछ लोग ,कुछ लोगो के डंडा डाल देने की विद्या जानते है जिसका वे लोग यदा कदा प्रयोग भी करते रहते है पर अब इस विद्या का उपयोग कम दुरूपयोग ज्यादा होने लगा है ,कुछ लोग डंडा डालने के बाद डंडा निकालते नहीं है जिससे ,जिसमे डंडा डाला जाता है तकलीफ में आ जाता है और वह तिरझा-तिरझा चलने पर मजबूर हो जाता है यह प्रथा ठीक नहीं है यदि किसी के डंडा डाला भी जाये तो सही समय में निकाल भी लिया जाये नहीं तो स्थिति नियंत्रण के बाहर भी हो सकती है ,आज कल राजनीती में एक पार्टी दूसरी पार्टी के डंडा डाले ही रहती है ,यह एक फैशन सा हो चला है ,कोई भी फैशन बहुत दिन नहीं चलता ,पर यह साला डंडा डालने का चलन शदियों पुराना है ,हर युग में कोई न कोई किसी न किसी के डंडा डाले ही रहा है ,इतिहास गवाह है ,इतिहास की किताबे डंडा डालने और डलवाने वालो से भरी पड़ी है ,किसने किसके किस सन में डंडा डाला था याद रख पाना विद्यार्थियों के लिए मुश्किल कर देता है ,डंडा क्यों डाला और कहा डाला यह याद रखना तो लोहे के चने चबाने जैसा है ,कुछ लोगो का यह सोच हो सकता है की यह सब भद्र नहीं है ,डंडे के ऊपर यह नहीं लिखा जाना चाहिए जिससे अश्लीलता झलकती हो ,अश्लीलता डंडे में नहीं है और न लिखने में ये तो आपके दीमक का फितूर है जो आप को सही लगता है वही भर सत्य है बाकि सब झूठ ,भैया कोई भी लल्लू यह दावे के साथ यह नहीं कह सकता की यही सत्य है
हे वत्स सुनो .और दूसरो को भी सुनाओ ...........
क्रमश ....................
Monday, June 21, 2010
कहा हो मोहन प्यारे
रामखिलावन ,न हो गए अवधूत हो गए ,बलभद्र बोले नहीं हो, वो तो भूत हो गए है |
काहे ,कह रहे हो भाई,का आज कल मुलाकात नहीं हो रही है का ?
अरे जे बात नहीं है ,हो यह रहा है की मुलाकात की जगह मुक्कालात ज्यादा हो रही है ,खिसियानी बिलारी की तरह खिखियाते रहते है न जाने काहे |
बात असल में यह है जो इन चुतियो को समझ में नहीं आ रही है ,रामखिलावन आज कल अपने भीतर घुसने की कोशिश कर रहे है बलात कोशिश बरक़रार है पर घुस नहीं पा रहे है ,काहे रामखिलावन बाहर है का ,की भीतर जाने की कोशिश कर रहे है ,भला बिना दरवाजा के बाहर से भीतर कैसे जाया जा सकता है और या दरवाजा कहा है का रामखिलावन का मालूम है की चले है बाहर से भीतर ,ओ भीतर जायके करिहे का कुछ पता रता है की बस उठे ओ चल दयीन झोरा लेई के, का हो शनिचर |
ये वार्तालाप बलभद्र और शनिचर के बीच धाराप्रवाह चल ही रहा था की अनायास ,रामखिलावन प्रगट हो गए ,भय प्रगट कृपाला दीन दयाला की चिरपरिचित मुद्रा में .........का चल रहा है वत्स ,रामखिलावन मंद मंद ,भगवान की तरह मुस्कराते हुए उवाचे |
शनिचर जो पलथी मारे अभी तक बलभद्र स्वामी की वाणी सुन रहा था ,मुद्रा बदल उकुडू बैठ गया वैसे भी वो पलथी मारे मारे अधमरा हो चला था |
वत्स ,अस्त वस्त थे गहन सोच विचार में मग्न थे उन्हें पता ही नहीं था की प्रभु इस तरह अचानक प्रगट हो जायेंगे बलभद्र की वाणी रेलगाड़ी की तरह रुक गयी और शनिचर जो उसमे चठा था उतर भागा,पर भाग कर जाता कहा सो उकुडू बैठ गया था |दादा कुछु नहीं, होइगा गप्प सड़ाका चल रहा है ,इस तरह से समय क्यों नष्ट करे हो वत्स रामखिलावन बोले जीवन अमूल्य है नहीं जानते ,अरे दादा जान के का कर लेबे मूल्य हो या अमूल्य हो बलभद्र ओउघाते ओउघाते उवाचे |रामखिलावन खिन्न हो गए ये सब सुन कर ,कहा हो मोहन प्यारे .......बरसो घनघना के इन ससुरो के ऊपर जो इस जीवन का मोल नहीं समझ रहे है तुमने प्रेम बस इन्हें ये अलौकिक जीवन दिया और ये ससुरे अलौकिक को लौकिक बनाये घुम रहे है ,ये का लौकी .लौकी बोल रहे हो दादा रामखिलावन आज कल के मौसम माँ लौकी वौकी नहीं फरे बलभद्र का कहना वाजिब था ,दादा रामखिलावन ने दिमाग लगाया ,बच्चा सही कह रहा है ,जिधर देखो उधर सब तरफ अफरातफरी मची हुई है लौलिकता पर ,अपने आप को छोड़ सब कुछ पाना चाह रहे है लोग आपाधापी मची है इस अलौकिक शरीर को लोग लौकिक काम तक सियमित किये हुए है ,जाना कहा है जा कहा रहे है उन्हें खुद पता नहीं ,जिन्हें खुद पता नहीं वे जायेंगे कहा यही कही मर मुरा जायेंगे ,वैसे भी मारे हुए तो है ही ये अलग बात है की जलाये नहीं गए है ........हे प्रभु तुम कहा हो मोहन प्यारे ...........
रामखिलावन भीतर घुसने की कोशिश तो कर रहा है पर आप क्या कर रहे है क्या बाहर ही बाहर चले जायेंगे ,अन्दर नहीं आयेंगे .......
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